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Friday 27 March 2015

श्रीराम जन्मोत्सव

जब मंद-मंद शीतल सुगंधित वायु प्रवाहित हो रही थी, साधुजन प्रसन्नचित्त उत्साहित हो रहे थे, वन प्रफुल्लित हो उठे, पर्वतों में मणि की खदानें उत्पन्न हो गई और नदियों में अमृत तुल्य जल बहने लगा तब-

नवमी तिथि मधुमास पुनीता सुक्ल पक्ष अभिजित हरि प्रीता।
मध्यदिवस अति सीत न घामा पावन काल लोक विश्रामा।।
          अर्थात- चैत्र के पवित्र माह की अभिजित शुभ तिथि शुक्ल पक्ष की नवमी को जब न बहुत शीत थी न धूप थी, सब लोक को विश्राम देने वाला समय था, ऐसे में विश्वकर्मा द्वारा रचित स्वर्ग सम अयोध्या पुरी में रघुवंशमणि परम धर्मात्मा, सर्वगुण विधान, ज्ञान हृदय में भगवान की पूर्ण भक्ति रखने वाले महाराज दशरथ के महल में-
भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी
भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी
         ईश्वर जन्म नहीं अपितु अवतरित होते हैं, इसका मानस में बहुत सुन्दर वर्णन मिलता है। जब माता कौशल्या के सम्मुख भगवान विष्णु चतुर्भुज रूप में अवतरित हुए तो उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि हे तात! मैं आपकी स्तुति किस प्रकार से करूं! आपका अन्त नहीं है, आप माया-मोह, मान-अपमान से परे हैं, ऐसा वेद और पुराण कहते हैं। आप करूणा और गुण के सागर हैं, भक्त वत्सल हैं। मेरी आपसे यही विनती है कि अपने चतुर्भुज रूप को त्याग हृदय को अत्यन्त सुख देने वाली बाल लीला कर मुझे लोक के हंसी-ठट्ठा से बचाकर जग में आपकी माँ कहलाने का सौभाग्य प्रदान करो
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा।।
         भगवान विष्णु ने मानव रूप में अवतार लेकर असुरों का संहार किया। उनके आदर्श राष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता की सीमाओं को लांघकर विश्वव्यापी बन गये, जिससे वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। मनुष्य की श्रेष्ठता उसके शील, विवेक, दया, दान, परोपकार धर्मादि सदगुणों के कारण होती है, इसलिये जीवन का मात्र पावन ध्येय "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" होता है।  मानव की कीर्ति उनके श्रेष्ठ गुणों और आदर्श के कार्यान्वयन एवं उद्देश्य के सफल होने पर समाज में  ठीक उसी तरह स्वतः प्रस्फुटित होती है जैसे- मकरंद सुवासित सुमनों की सुरभि!  यही कारण है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सा लोकरंजक राजा कीर्तिशाली होकर जनपूजित होता है, जबकि परनारी अपहर्ता, साधु-संतों को पीड़ित करने वाला वेद शास्त्र ज्ञाता रावण सा प्रतापी नरेश अपकीर्ति पाकर लोकनिन्दित बनता है। इसलिए कहा गया है कि - "रामवत वर्तितव्यं न रावणदिव" अर्थात राम के समान आचरण करो, रावण के समान नहीं।  
       
श्रीराम के आदर्श शाश्वत  हैं उनके जीवन मूल्य कालजयी होने के कारण आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने त्रेतायुग में भावी शासकों को यह सन्देश दिया है-
"भूयो भूयो भाविनो भूमिपाला: नत्वान्नत्वा याच्तेरारामचंद्र
सामान्योग्य्म धर्म सेतुर्नराणा काले-काले पालनियों भवदभि:"
        अर्थात-  हे! भारत के भावी पालो! मैं तुमसे अपने उत्तराधिकार के रूप में यही चाहता हूँ की वेदशास्त्रों के सिद्धांतों की रक्षा हेतु जिस मर्यादा को मैंने स्थापित किया, उसका तुम निरंतर पालन करना। वस्तुत: नीतिभ्रष्टता के समकालीन बवंडर में समाज को स्वामित्व प्रदान करने के लिए सनातन धर्म के चिरंतन आदर्शों के प्रतीक श्रीराम के चरित्र से ही प्रेरणा प्राप्त करना चाहिए।

सबको रामनवमी की हार्दिक मंगलकामनाएं!
              .       कविता रावत के ब्लॉग से साभार  http://kavitarawatbpl.blogspot.in/2015/03/blog-post_27.html

Wednesday 3 December 2014

भोपाल गैस त्रासदी के तीस बरस

तीस बरस बीत गए भोपाल गैस त्रासदी के

देखते-देखते भोपाल गैस त्रासदी के तीस बरस बीत गए। हर वर्ष 3 दिसम्बर को मन में कई सवाल उठकर अनुत्तरित रह जाते हैं। हमारे देश में मानव जीवन कितना सस्ता और मृत्यु कितनी सहज है इसका अनुमान इस विभीषिका से लगाया जा सकता है, जिसमें हजारोें लोग अकाल मौत के मुँह में चले गए और लाखों लोग प्रभावित हुए। इस त्रासदी से जहाँ एक ओर हजारों पीडि़तों का शेष जीवन घातक बीमारियों, अंधेपन एवं अपंगता का अभिशाप बना गया तो दूसरी ओर अनेक घरों के दीपक बुझ गए। इससे प्रभावित बच्चों, जवानों की जीवन शक्ति का क्षय हो गया और उनकी आयु घट गई। हजारों परिवार निराश्रित और बेघर हो गये, जिन्हें तत्काल जैसी सहायता व सहानुभूति मिलनी चाहिए थी वह न मिली।   
          विकासशील देशों को विकसित देश तकनीकी प्रगति एवं औद्योगिक विकास और सहायता के नाम पर वहाँ त्याज्य एवं निरूपयोगी सौगात देते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण यूनियन कार्बाइड काॅरपोरेशन है, जिसके कारण हजारों लोग मारे गए, कई हजार कष्ट और पीड़ा से संत्रस्त हो गए लेकिन उनकी समुचित सहायता व सार-संभाल नहीं हुई, जिससे पीडितों को उचित क्षतिपूर्ति के लिए कानूनी कार्यवाही एवं नैतिक दबाव का सहारा लेना पड़ा। यदि अमेरिका में ऐसी दुर्घटना होती तो वहाँ की समूची व्यवस्था क्षतिग्रस्तों को यथेष्ट सहायता मुहैया कराकर ही दम लेती। अमेरिका में ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें जनजीवन को अरक्षा व अनिष्ट के लिए जिम्मेदार कम्पनियों एवं संस्थानों ने करोड़ों डालरों की क्षतिपूर्ति दी, लेकिन गरीब देशों के नागरिकों का जीवन मोल विकसित देशों के मुकाबले अतिशय सस्ता आंका जाना इस त्रासदी से आसानी से समझ में आता है।
         इस विभाीषिका से एक साथ कई मसले सामने आये। एक तो ऐसे कारखानों को घनी आबादी के बीच लगाने की अनुमति क्यों दी गई, जहाँं विषाक्त गैसों का भंडारण एवं उत्पादकों में प्रयोग होता है। यह कीटनाशक कारखाना देश का सबसे विशाल कारखाना था, जिसने सुरक्षा व्यवस्था और राजनीतिक सांठ-गांठ की पोल खोल दी। यह दुर्घटना विश्व में अपने ढंग की पहली घटना थी। विभीषिका से पूर्व भी संयंत्र में कई बार गैस रिसाव की घटनायें घट चुकी थी, जिसमें कम से कम दस श्रमिक मारे गए थे। 2-3 दिसम्बर 1984 की दुर्घटना मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस से हुई। कहते हैं कि इस गैस को बनाने के लिए फोस जेन नामक गैस का प्रयोग होता है। फोसजेन गैस भयावह रूप से विषाक्त और खतरनाक है। कहा जाता है कि हिटलर ने यहूदियों के सामूहिक संहार के लिए गैस चेम्बर बनाये थे जिसमें यह गैस भरी हुई थी। ऐसे खतरनाक एवं प्राणघातक उत्पादनों के साथ संभावित खतरों का पूर्व आकलन एवं समुचित उपाय किए जाते हैं। मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने यदि सुरक्षा उपाय हेतु ठोस कदम उठाए होते तो इस विभीषिका से बचा जा सकता था। पूर्व की दुर्घटनाओं के बाद कारखाने की प्रबंध व्यवस्था ने उचित कदम नहीं उठाए और शासन प्रशासन भी कत्र्तव्यपालन से विमुख व उदासीन बना रहा नतीजन हजारों लोगों इस आकस्मिक विपदा के शिकार होना पड़ा। 
         तीस बरस बीत जाने पर भी दुर्घटना स्थल पर पड़े केमिकल कचरे को अब तक ठिकाने न लगा पाना और गैस पीडि़तों को समुचित न्याय न मिल पाना शासन प्रशासन की कई कमजोरियों को उजागर करती है।
 KAVITA RAWAT के ब्लॉग से साभार 

Friday 3 October 2014

रावण के बिना दशहरा अधूरा है

आसुरी शक्ति पर दैवी-शक्ति की विजय का प्रतीक शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा के नवस्वरूपों की नवरात्र के पश्चात् आश्विन शुक्ल दशमी को इसका समापन ‘मधुरेण समापयेत’ के कारण ‘दशहरा’ नाम से प्रसिद्ध है।  दशहरा असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। रावण के बिना दशहरा अधूरा है। बचपन में जब नवरात्रों में रामलीला का मंचन होता तो उसे देखने के लिए हम बच्चे बड़े उत्साहित रहते। पूरे 11 दिन तक आस-पास जहां भी रामलीला होती, हम जैसे-तैसे पहुंच जाते। किसी दिन भले ही नींद आ गई होगी लेकिन जिस दिन रावण का प्रसंग होता उस दिन उत्सुकतावश आंखों ने नींद उड़ जाती। पहले दिन मंच पर रावण अपने भाईयो कुंभकरण व विभीषण के साथ एक टांग पर खड़े होकर घनघोर ब्रह्मा जी की तपस्या करता नजर आता तो हम रोमांचित हो उठते। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी उनसे वर मांगने को कहते तो वह भारी-भरकम आवाज में यह वरदान मांगते कि- 'देव-दनुज, किन्नर और नारी, जीतहूँ सबको सकल जग जानी।" कुंभकरण का विशाल शरीर देखकर ब्रह्मा जी उसे भ्रमित कर देते हैं तो वह "सुनहुं नाथ यह विनती हमारी, मो को है अति निद्रा प्यारी।" कहकर छः माह सोने व एक दिन जागने का वरदान मांग बैठता। अंत में विभीषण ब्रह्मा जी से प्रभु के चरणों में भक्ति के साथ जनकल्याण का वरदान इस तरह मांगते कि, "जो प्रभु प्रसन्न मोहि पर, दीजो यह वरदान, जनम-जनम हरि भक्ति में सदा रहे मम ध्यान।" भगवान ब्रह्मा जी ‘तथास्तु’  कहकर अंतर्ध्यान होते तो दृश्य का पटाक्षेप हो जाता। 
          "देखो ऐ लोगो तुम मेरे बल को, कैलाश परबत उठा रहा हूँ। सब देखें कौतुक नर और नारी, नर और नारी कैलाश परबत उठा रहा हूँ।"  और जैसे ही वह कैलाश पर्वत को उठाने के लिए जोर लगता है तो पार्वती डर जाती कि यह क्या हो रहा है तो शिवजी उन्हें समझाते ही यह सब रावण का काम है जो वरदान पाकर उदण्ड हो गया है और इसी के साथ वे अपनी त्रिशुल उठाकर गाड़ देते जिससे रावण बहुत देर तक   "त्राहि माम्, त्राहि माम्" की रट लगा बैठता जिसे सुनकर माता पार्वती को अच्छा नहीं लगता और वे  भगवान शिव उसे  छोड़ देने को कहते। भोले शंकर अपना त्रिशूल उठाते हैं तो वह छूटकर भाग खड़ा होता। लेकिन मंचन के अगले दृश्य के लिए जैसे ही सींटी बजती और पर्दा खुलता तो वहाँ अलग-अलग शक्ल-सूरत वाले राक्षस धमाल मचाते नजर आते, जिनकी उटपटांग बातें सुनकर कभी हँसी आती तो कभी-कभी डर भी लगता। इसी बीच जैसे ही रावण तेजी से मंच पर आकर इधर से उधर चहलकदमी कर गरज-बरसकर दहाड़ता कि-"ऐ मेरे सूरवीर सरदारो! तुम बंद कंदराओं में जाकर ऋषि-मुनियों को तंग करो। उनके यज्ञ में विध्न-बाधा डालो। यज्ञहीन होने से सब देवता बलहीन हो जायेंगे और हमारी शरण में आयेंगे। तब तुम सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सुख भोगोगे।" तो राक्षसों के साथ हमारी भी सिट्टी-पिट्टी गोल हो जाती। राक्षसों का अभिनय देखते ही बनता वे ’जी महाराज’ ‘जी महाराज’ की रट लगाकर उसके आगे-पीछे इधर से उधर छुपते फिरते।
 अगले दृश्य में रावण वरदान पाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कैलाश पर्वत पर करता दिखाई देता। वह कैलाश पर्वत जिस पर शिवजी और पार्वती जी विराजमान रहते, उसे एक हाथ से उठाते हुए कहता कि-
           रावण का अगला लघु दृश्य सीता स्वयंवर में  देखने को मिलता, जहांँ वह धनुष उठाने के लिए जैसे ही तैयार होता है तो बाणासुर आकर उसे टोकते हुए समझाईश देता कि-"न कर रावण गुमान इतना, चढ़े न तुमसे धनुष भारी, मगर धनुष को प्रभु वह तोड़े जिन्होंने गौतम की नारी तारी।" जिसे सुन रावण क्रोधित होकर उसे याद दिलाते हुए मूर्ख ठहराते हुए कहता- "चुप बैठ रह वो बाणासुर, इस दुनिया में बलवान नहीं, मैंने कैलाश पर्वत उठाया था, क्या मूर्ख तुझे याद नहीं?" इसी के साथ जब वह धनुष उठाने के लिए जैसे ही झुकता तो एक आकाशवाणी होती कि उसकी बहन को कोई राक्षस उठा ले जा रहा है। जिसे सुन वह यह कहते हुए कि "अभी तो वह जा रहा है ,लेकिन एक दिन वह सीता को अपनी पटरानी जरूर बनायेगा।" तेजी से भाग जाता।  
 इसी तरह मारीच प्रसंग के बाद सीताहरण और फिर आखिर में युद्ध की तैयारी और फिर 11वें दिन राम-रावण युद्ध के दृश्य में रावण के  मारे जाने के बाद भी हमारी आपस में बहुत सी चर्चायें कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती। स्कूल की किताब में लिखा हमें याद न हो पाये लेकिन रामलीला में किसकी क्या भूमिका रही, किसने क्या-क्या और किस ढंग से कहा इस पर आपसी संवाद स्कूल जाने और वापस घर पहुंँचने तक निरंतर चलता रहता।         
 आज जब भी दशहरा मैदान में रावण का दहन होता है तो उसके दस मुखों पर ध्यान केन्द्रित होता है। मेरी तरह आपका भी ध्यान  इस ओर जरूर जाता होगा कि क्या कभी दशानन रावण ने अपने दस मुखों से बोला होगा? इस संबंध में कहते हैं कि रावण को श्राप था कि जिस दिन वह अपने दस मुखों से एक साथ बोलेगा, उसी दिन उसकी मृत्यु सन्निकट होगी और वह बच नहीं पायेगा। इसीलिए वह बहुत सचेत रहता था। लेकिन कहा जाता है कि जब भगवान राम द्वारा समुद्र पर पुल बांध लेने का समाचार उसके दूतों ने उसे सुनाया तो वह जिस समुद्र को कभी नहीं बांध सका, इस कल्पनातीत कार्य के हो जाने पर विवेकशून्य होकर एक साथ अपने दस मुखों से समुद्र के दस नाम लेकर बोल उठा- 
बांध्यो बननिधि नीरनिधि, जलधि सिंघु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति, उदति पयोधि नदीस।। 
………फिलहाल इतना ही .............

सबको दशहरा की हार्दिक शुभकामनाऐं।
कविता रावत के ब्लॉग से साभार!

Thursday 2 October 2014

गाँंधी जयंती और स्वच्छता अभियान

गांधी जयंती गांधी जी को स्मरण करने का पुण्य दिन है। 2 अक्टूबर 1869 को गांधी जी के जन्म हुआ था। इसलिए कृतज्ञ राष्ट्र उनके जन्म दिवस को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। अर्चना के अगणित स्वर मिलकर इस युग के सर्वश्रेष्ठ महामानव की वंदना करता है।  इस दिन स्थान-स्थान पर गांधी जी के जीवन की झांकियां दिखाई जाती है, उनके जीवन की विशिष्ट घटनाओं के चित्र लगाए जाते हैं। गांधी जी पर प्रवचन और भाषण होते है। मुख्य समारोह दिल्ली के राजघाट पर होता है। राष्ट्र के कर्णधार मुख्यतः राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री और नेतागण तथा श्रद्धालु-जन गांधी जी के समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। प्रार्थना-सभा में राम धुन और गांधी जी के प्रिय भजनों का गान होता है। विभिन्न धर्मो के पुजारी प्रार्थना के साथ अपने-अपने धर्म-ग्रंथों से पाठ करते हैं। श्रद्धा-सुमन चढ़ाने और भजन-गान का कार्यक्रम ‘बिड़ला हाउस’ में भी होता है, जहां गांधी जी शहीद हुए थे।
भारत सरकार द्वारा गांधी जयंती के अवसर पर राष्ट्रीय स्वच्छता जागरूकता अभियान चलाये जाने की घोषणा स्वागतयोग्य है। प्रधानमंत्री मोदी जी 2 अक्टूबर को एक बुकलेट जारी कर ‘स्वच्छ भारत मिशन’ लाँच करते हुए स्वयं इसकी शुरूआत कर लोगों को जागरूक करेंगे। समस्त देशवासी इस अभियान से जुड़कर इसे सफल बनायें इसके लिए ‘स्वच्छता शपथ’ कुछ इस प्रकार होगा-
  • महात्मा गाँधी ने जिस भारत का सपना देखा था, उसमें सिर्फ राजनैतिक आजादी ही नहीं थी, बल्कि एक स्वच्छ एवं विकसित देश की कल्पना भी थी।
  • महात्मा गांधी ने गुलामी की जंजीरों को तोड़कर माँ भारती को आजाद कराया। अब हमारा कर्तव्य  है कि गन्दगी को दूर करके भारत माता की सेवा करें।
  • मैं शपथ लेता/लेती हूँ कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूंगा/रहूंगी और उसके लिए समय दूँगा/दूँगी।
  • हर वर्ष 100 घंटे यानी हर सप्ताह 2 घंटे श्रमदान करके स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करूंगा/करूंगी।
  • मैं न गंदगी करूँगा न किसी और को करने दूंगा/दूंगी।
  • सबसे पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गांव से एवं मेरे कार्यस्थल से शुरूआत करूंगा/करूंगी।
  • मैं यह मानता/मानती हूं कि दुनिया के जो भी देश स्वच्छ दिखते हैं उसका कारण वहां के नागरिक गंदगी नहीं करते और न ही होने देते हैं।
  • इस विचार के साथ मैं गाँव हो या शहर गली-गली स्वच्छ भारत मिशन का प्रचार करूंगा/करूंगी।
  • मैं आज जो शपथ ले रहा हूँ वह अन्य 100 व्यक्तियों से भी करवाऊँगा/करवाऊँगी।
  • वे भी मेरी तरह स्वच्छता के लिए 100 घंटे दें, इसके लिए प्रयास करूंगा/करूगी।
  • मुझे मालूम है कि स्वच्छता की तरफ बढ़ाया गया मेरा एक कदम पूरे भारत देश को स्वच्छ बनाने में मदद करेगा।
            हम सभी भलीभांति जानते हैं कि यह अभियान तभी सफल हो सकेगा जब सभी भारतवासी सच्चे मन से गांधी जी के विचारों और उनकी कार्यप्रणाली को आत्मसात करेंगे। क्योंकि हमारे देश की बिडम्बना है कि हम स्वयं गांधी जी की तरह सोच नहीं बना पाते। काम को छोटा-बड़ा समझकर उसको सोचने-विचारने में ही अधिकाशं समय बर्बाद कर देते हैं। 'यह मेरा काम नहीं है, उसका काम है' जैसी धारणा का हमारे मन में गहरी पैठ है। जबकि बापू यह मानते थे कि अपनी सेवा किये बिना कोई दूसरों की सेवा नहीं कर सकता है। दूसरों की सेवा किये बिना जो अपनी ही सेवा करने के इरादे से कोई काम शुरू करता है, वह अपनी और संसार की हानि करता है। वे खुद कैसे दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाते थे, इस पर एक प्रेरक प्रसंग देखिए- मगनवाड़ी आश्रम में सभी को अपने हिस्से का आटा पीसना पड़ता था। एक बार आटा समाप्त हो गया। आश्रमवासी रसोईया सोचने लगा कि अब क्या किया जाय? यदि वह चाहता तो स्वयं भी पीसकर उस दिन का काम चला सकता था, लेकिन चिढ़कर उसने ऐसा नहीं किया। वह सीधे गांधी जी के पास गया और बोला ‘आज रसोईघर में रोटी बनाने के न आटा है न कोई पीसने वाला है। अब आप ही बताएं, क्या करूं? गांधी जी ने शांत भाव से कहा- ‘इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है। चलो, मैं चलकर पीस देता हूँ।’ बापू अपना काम छोड़कर गेंहूँ  पीसने बैठ गए। जब रसोईया ने गांधी जी को चक्की चलाते देखा तो उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई। उसने गांधी जी से कहा कि ‘बापू आप जाइये, मैं खुद ही पीस लूंगा।’ इसका गहरा प्रभाव केवल रसोईया पर ही नहीं बल्कि सभी व्यक्तियों पर पड़ा।   
आइए, स्वच्छता अभियान से जुड़कर ‘स्वच्छता शपथ’ में उल्लेखित बिन्दुओं पर आज ही अमल करते हुए देश को स्वच्छ बनाने की दिशा में अपना अमूल्य योगदान देने के लिए आगे आयें और भारत को स्वच्छ बनायें।

कविता रावत के ब्लॉग से साभार 

Sunday 17 August 2014

जन्माष्टमी

मान्यता है कि त्रेता युग में  'मधु' नामक दैत्य ने यमुना के दक्षिण किनारे पर एक शहर ‘मधुपुरी‘ बसाया। यह मधुपुरी द्वापर युग में शूरसेन देश की राजधानी थी। जहाँ अन्धक, वृष्णि, यादव तथा भोज आदि सात वंशों ने राज्य किया। द्वापर युग में भोजवंशी उग्रसेन नामक राजा राज्य करता था, जिसका पुत्र कंस था।  कंस बड़ा क्रूर, दुष्ट, दुराचारी और प्रजापीड़क था। वह अपने पिता उग्रसेन को गद्दी से उतारकर स्वयं राजा बन बैठा। उसकी एक बहन थी, जिसका नाम देवकी था। वह अपनी बहन से बहुत प्यार करता था। जब उसका विवाह यादववंशी वसुदेव से हुआ तो वह बड़ी खुशी से उसे विदा करने निकला तो रास्ते में आकाशवाणी हुई  कि- "हे कंस! जिस बहन को तू इतने लाड़-प्यार से विदा कर रहा है, उसके गर्भ से उत्पन्न आठवें पुत्र द्वारा तेरा अंत होगा।" यह सुनकर उसने क्रोधित होकर देवकी को मारने के लिए तलवार निकाली, लेकिन वसुदेव के समझाने और देवकी की याचना पर उसने इस शर्त पर उन्हें हथकड़ी लगवाकर कारागार में डलवा दिया कि उनकी जो भी संतान होगी वह उसे सुपुर्द कर देंगे। एक के बाद एक सात संतानों को उसने जन्म लेते ही मौत के घाट उतार दिया। 
          आकाशवाणी के अनुसार जब आठवीं संतान होने का निकट समय आया तो उसने पहरा और कड़ा कर दिया। लेकिन ईश्वर की लीला कौन रोक पाता? वह समय भी आया जब भादों मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में घनघोर अंधकार और मूसलाधार वर्षा में भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुस्कृताम' तथा 'धर्म संस्थापनार्थाय' अर्थात् दुराचरियों का विनाश कर साधुओं के परित्राण और धर्म की स्थापना हेतु भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए। 
       
कंस इस बात से अनभिज्ञ था कि ईश्वर जन्म नहीं वह तो अवतरित होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अवतरण के साथ ही अपनी लीलायें आरम्भ कर दी। अवतरित हुए तो जेल के पहरेदार गहरी नींद में सो गये। वसुदेव-देवकी की हथकडि़यां अपने आप खुल गई। आकाशवाणी हुई तो वसुदेव के माध्यम से सूपे में आराम से लेट गये और उन्हें उफनती यमुना नदी पार करवाकर नंदबाबा व यशोदा के धाम गोकुल पहुंचा दिया। जहाँ नंदनंदन और यशोदा के लाड़ले कन्हैया बनकर उनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। आज भी यह सम्पूर्ण भारत के साथ ही विभिन्न देशों में भी मनाया जाता है। मथुरा तथा वृन्दावन में यह सबसे बड़े त्यौहार के रूप में बड़े उत्साह के साथ 10-12 दिन तक बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। मंदिर में श्रीकृष्ण की अपूर्व झांकियां सजाई जाती हैं। यहाँ श्रद्धालु जन्माष्टमी के दिन मथुरा के द्वारिकाधीश मंदिर में रखे सवा लाख के हीरे जडि़त झूले में भगवान श्रीकृष्ण को झूलता देख, खुशी से झूमते हुए धन्य हो उठते हैं।
           बहुमुखी व्यक्तित्व के स्वामी श्रीकृष्ण आत्म विजेता, भक्त वत्सल तो थे ही साथ ही महान राजनीतिज्ञ भी थे, जो कि महाभारत में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। श्रीकृष्ण ने अत्याचारी कंस को मारकर उग्रसेन को राजगद्दी पर बिठाया। महाभारत के युद्धस्थल में मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए अपना विराट स्वरुप दिखाकर उनका मोह से मुक्त कर जन-जन को ‘कर्मण्येवाधिकारिस्ते मा फलेषु कदाचन‘ का गुरु मंत्र दिया। वे एक महान धर्म प्रवर्तक भी थे, जिन्होंने ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्व्य कर भागवत धर्म का प्रवर्तन किया। योगबल और सिद्धि से वे योगेश्वर (योग के ईश्वर) कहलाये। अर्थात योग के श्रेष्ठतम ज्ञाता, व्याख्याता, परिपालक और प्रेरक थे, जिनकी लोक कल्याणकारी लीलाओं से प्रभावित होकर वे आज न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व में पूजे जाते हैं।
         भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के सम्बन्ध में सूर्यकान्त बाली जी ने बहुत ही सुन्दर और सार्थक ढंग से लिखा है कि- “कृष्ण का भारतीय मानस पर प्रभाव अप्रतिम है, उनका प्रभामंडल विलक्षण है, उनकी स्वीकार्यता अद्भुत है, उनकी प्रेरणा प्रबल है, इसलिए साफ नजर आ रहे उनके निश्चित लक्ष्यविहीन कर्मों और निश्चित निष्कर्षविहीन विचारों में ऐसा क्या है, जिसने कृष्ण को कृष्ण बना दिया, विष्णु का पूर्णावतार मनवा दिया? कुछ तो है। वह ‘कुछ’ क्या है?  कृष्ण के जीवन की दो बातें हम अक्सर भुला देते हैं, जो उन्हें वास्तव में अवतारी सिध्द करती हैं। एक विशेषता है, उनके जीवन में कर्म की निरन्तरता। कृष्ण कभी निष्क्रिय नहीं रहे। वे हमेशा कुछ न कुछ करते रहे। उनकी निरन्तर कर्मशीलता के नमूने उनके जन्म और स्तनंध्य शैशव से ही मिलने शुरू हो जाते हैं। इसे प्रतीक मान लें (कभी-कभी कुछ प्रतीकों को स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होता) कि पैदा होते ही जब कृष्ण खुद कुछ करने में असमर्थ थे तो उन्होंने अपनी खातिर पिता वसुदेव को मथुरा से गोकुल तक की यात्र करवा डाली। दूध् पीना शुरू हुए तो पूतना के स्तनों को और उनके माधयम से उसके प्राणों को चूस डाला। घिसटना शुरू हुए तो छकड़ा पलट दिया और ऊखल को फंसाकर वृक्ष उखाड़ डाले। खेलना शुरू हुए तो बक, अघ और कालिय का दमन कर डाला। किशोर हुए तो गोपियों से दोस्ती कर ली। कंस को मार डाला। युवा होने पर देश में जहां भी महत्वपूर्ण घटा, वहां कृष्ण मौजूद नजर आए, कहीं भी चुप नहीं बैठे, वाणी और कर्म से सक्रिय और दो टूक भूमिका निभाई और जैसा ठीक समझा, घटनाचक्र को अपने हिसाब से मोड़ने की पुरजोर कोशिश की। कभी असफल हुए तो भी अगली सक्रियता से पीछे नहीं हटे। महाभारत संग्राम हुआ तो उस योध्दा के रथ की बागडोर संभाली, जो उस वक्त का सर्वश्रेष्ठ  धनुर्धारी था। विचारों का प्रतिपादन ठीक युध्द क्षेत्र में किया। यानी कृष्ण हमेशा सक्रिय रहे, प्रभावशाली रहे, छाए रहे।"
कृष्ण जन्मस्थली मथुरा का चित्र गूगल से साभार 

 सभी श्रद्धालु जनों को  भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें! 
कविता रावत के ब्लॉग KAVITARAWATBPLसे साभार!